फिल्म स्टार्स कभी बड़े-से-बड़े व्यक्तित्व माने जाते थे। उनका फैशन, संस्कृति और आम लोगों की सोच पर गहरा असर
होता था। लेकिन आज के डिजिटल युग में एक सवाल और भी अहम हो गया है: क्या बॉलीवुड सितारे इंस्टाग्राम
इंफ्लुएंसर्स से अपनी चमक खो रहे हैं? किसने सोचा था कि स्टारडम का जुनून एक दिन इंस्टाग्राम रील्स से बदल
जाएगा!

बदलते स्टारडम के पीछे की वजह क्या?

पहले सितारों का स्टारडम उनके रहस्यमय और दूरी बनाए रखने वाले स्वभाव पर टिका हुआ था। लोग उन्हें दूर से ही
पूजते थे, उनकी ज़िंदगी के वल मैगज़ीन या कभी–कभार इंटरव्यू से झलकती थी। लेकिन इंस्टाग्राम ने ये खेल बदल
दिया।

आज इंफ्लुएंसर्स पहुंच और अपनापन बेचते हैं। उनके “डेइन माय लाइफ” रील्स, स्किनके यर हैक्स या स्ट्रीटस्टाइल वीडियो लोगों से सीधा जुड़ाव बना देते हैं। जबकि फिल्म स्टार्सअक्सर सतही (superficial) पर्सनैलिटी दिखाते हैं।

अब खेल सिर्फ संस्कृति का नहीं, पैसों का भी

पहले ब्रांड्स बड़े–बड़े कॉन्ट्रैक्ट्स सिर्फ टॉप एक्टर्स को देते थे। आज वही ब्रांड माइक्रो और नैनो इंफ्लुएंसर्स को चुन रहे हैं। क्योंकि ये कम पैसों में ज्यादा एंगेजमेंट देते हैं।

उदाहरण केलिए—जहाँ एक सुपरस्टार 5–10 करोड़ रुपये लेता है, वहीं एक इंफ्लुएंसर लाखों में बेहतर रिज़ल्ट देता है और ज्यादा असली (authentic) भी लगता है।

युवाओं की नयी चाहत

अब युवाओं को बॉलीवुड का बनावटीपन पसंद नहीं आता। वो खुद कंटेंट क्रिएटर बनकर करोड़ों फॉलोअर्स पाना
चाहते हैं। कोमल पांडे और अलाना पांडे जैसे क्रिएटर्स का नाम और सफलता इसका सबूत है। अब स्टारडम बॉक्स
ऑफिस नहीं बल्कि फॉलोअर्स, रील व्यूज़ और ब्रांड डील्स सेतय होता है।

एक्टर्स बनाम क्रिएटर्स

अनन्या पांडे और आलिया भट्ट जैसी एक्ट्रेसेस के पास अभी भी कल्चरल पावर है। लेकिन इंफ्लुएंसर्स की लगातार
और नज़दीकी मौजूदगी उनकी पकड़ को धीरे-धीरे कमजोर कर रही है। लोग अब घर बैठे रील्स स्क्रॉल करना ज़्यादा
पसंद करते हैं, बजाय थिएटर जाने के। एक इंफ्लुएंसर हफ्ते में पाँच रील्स डालता है, जबकि कोई एक्टर दो साल में
एक फिल्म देता है। जाहिर है—दिखाई कौन ज़्यादा देता है?

स्टारडम का भविष्य

आज “इंफ्लुएंस” की परिभाषा बदल रही है। फिल्म स्टार्स का अंत तो नहीं हुआ है, लेकिन उनका रूप ज़रूर बदल
रहा है। उन्हें अब डिजिटल पर्सनालिटी बनानी पड़ेगी। वहीं इंफ्लुएंसर्स पुरानी व्यवस्था को चुनौती देते रहेंगे।

असल मुकाबला यह नहीं हैकि “कौन ज्यादा मशहूर है”—बल्कि यह है कि किसके पास लोगों का ध्यान है। क्योंकि इस दौर में ध्यान ही सबसे बड़ी करेंसी है।

रिपोर्ट- पद्मजा सिंह

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