हाल ही में संपन्न लोकसभा चुनावों में यूपी सपा को भाजपा से ज्यादा सीटें मिली. चुनाव के परिणामों को सीएम योगी ने जातिवाद के जहर से जोड़कर जातिवाद की कटु निंदा की. उन्होंने कहा कि जातिवाद के जहर ने देश को गुलाम बनाया आक्रांताओं से हारने की मुख्य वजह जातिवाद ही थी. जहाँ तक जाति के अस्तित्व की बात है तो इसकी शुरुआत उत्तर वैदिक काल में हुई थी.

हालाँकि पूर्व वैदिक काल में शूद्र वर्ण का उल्लेख मात्र ऋग्वेद के दसवें मण्डल के पुरुष सूक्त में ही मिलता है जो कि यह मण्डल बाद का माना जाता है. इससे स्पष्ट होता है कि तब तीन वर्ण ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य ही थे अर्थात तीन ही वर्ण थे जिनका विभाजन जन्म से नहीं कर्म से था. ऋग्वेद के नौवें मण्डल में एक व्यक्ति कहता है – मै कवि हूँ, मेरा पिता वैद्य है, मेरी माँ आटा पीसने वाली है. इस तरह अलग अलग कार्य करते हुए हम सब साथ साथ रहते है. अब आते है तो जाति कैसे उत्पन्न हुई?

उत्तर वैदिक काल में अनुलोम, प्रतिलोम विवाहों के परिणाम स्वरूप जातियों का उत्पन्नीकरण हुआ जैसे अनुलोम विवाहों से अंबष्ठ, निषाद और उग्र जैसी जातियां उत्पन्न हुई . प्रतिलोम विवाहों से चांडाल जैसी जातियां उत्पन्न हुई. यदि जातियों के सम्बन्ध में आधुनिक द्रष्टिकोण की बात करें तो बाबा साहब आंबेडकर का द्रष्टिकोण का जानना समीचीन होगा. बाबा साहब ने अपनी किताब ”who were shudras” में लिखा है कि आर्यों ने कुछ समूहों को पराजित किया जिन्हे उन्हे बहिष्कृत कर दिया और लम्बे कालखंड में वे जातियां बन गई. यहां यह भी जानना जरूरी है बाबा साहब आर्यों को विदेशी नहीं मानते थे बल्कि भारत के ही मूल निवासी मानते थे.

जहाँ तक बौद्धों और जैनों की बात है तो केवल हिंदू धर्म के खिलाफ जातीय प्रतिक्रिया मात्र नहीं थी, उसके कई कारण थे. खुद बुद्ध जाति मानते थे उन्होंने कहा था कि क्षत्रिय, ब्राह्मण से श्रेष्ठ है. ऐसा ही एक जगह शतपथ ब्राह्मण में लिखा है. वास्तव में यदि बुद्ध धर्म का विकास हिंदू धर्म के खिलाफ प्रतिक्रिया थी तो विदेशों में इसके विकास के क्या यहीं कारण थे जहां हिंदू थे ही नहीं.

जहाँ तक मार्क्सवाद की बात है तो मार्क्स ने वर्ग संघर्ष की बातें की थी जो भारत, रूस सहित पूरी दुनिया से अप्रसंगिक होती जा रही है और लगभग हो चुकी है. आज के समय की बात है तो संघ, आंबेडकर, सावरकर, आर्य समाज आदि संगठनो ने जाति व्यवस्था पर जबरदस्त चोट पहुंचाई है. हालाँकि इस सम्बन्ध में अभी बहुत काम शेष है. इसको केवल राजनैतिक परिपेक्ष्य में ही नहीं देखना चाहिए, इसे सामाजिक रूप से ज्यादा देखना चाहिए. जब सामाजिक रूप से जाति व्यवस्था का समाधान हो जायेगा तो इसका राजनैतिक प्रभाव भी न्यून हो जायेगा.

लेखक – मुनीष त्रिपाठी,पत्रकार, इतिहासकार और साहित्यकार है ।

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