नई दिल्ली। गाजा संकट की भयावहता में जब बम गिर रहे हैं, निर्दोष नागरिक मारे जा रहे हैं और वैश्विक जनमत बंट रहा है, तब एक लोकतंत्र के रूप में भारत से नैतिक रुख की अपेक्षा करना स्वाभाविक है। लेकिन यह कहना कि भारत ने अपनी आवाज खो दी है, एक ग़लतफ़हमी है। भारत की आवाज़ अब सोशल मीडिया की कूटनीति जैसी तेज़ या तात्कालिक नहीं, बल्कि रणनीतिक, विवेकपूर्ण और ऐतिहासिक अनुभवों से गढ़ी गई है।

भारत ने 1974 में फिलिस्तीन मुक्ति संगठन (PLO) को मान्यता दी थी और 1988 में फिलिस्तीन को एक स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में। यह सिर्फ कूटनीति नहीं, भारत की उपनिवेश विरोधी विरासत का विस्तार था। आज जब भारत और इज़रायल के बीच रक्षा साझेदारी मजबूत हो रही है, तब भी फिलिस्तीन के प्रति भारत की सहानुभूति और सहायता में कोई कमी नहीं आई है।

भारत ने गाजा में मानवीय संकट के मद्देनज़र अब तक 70 मीट्रिक टन राहत सामग्री भेजी है, जिसमें 16.5 मीट्रिक टन जीवनरक्षक दवाइयां भी शामिल हैं। ये सहायता सीधे UNRWA और फिलिस्तीनी स्वास्थ्य मंत्रालय को सौंपी गई। 2024 में भारत ने UNRWA को 5 मिलियन डॉलर की सहायता दी, जो पिछले वर्ष के बराबर है।

सितंबर 2024 में पीएम नरेंद्र मोदी ने न्यूयॉर्क में फिलिस्तीनी राष्ट्रपति महमूद अब्बास से मुलाकात कर गाजा में स्थिति पर गहरी चिंता जताई और दो-राष्ट्र समाधान के प्रति भारत की प्रतिबद्धता दोहराई।

संयुक्त राष्ट्र महासभा में अक्टूबर 2023 के बाद फिलिस्तीन संबंधी 13 प्रस्तावों में भारत ने 10 के पक्ष में मतदान किया, केवल 3 पर तटस्थ रहा। यह किसी पक्ष को चुनना नहीं, बल्कि संतुलन साधना है।

1992 में जब भारत ने इज़रायल से पूर्ण राजनयिक संबंध स्थापित किए, तब वह फिलिस्तीन से विमुख नहीं हुआ, बल्कि एक बहुध्रुवीय विश्व की आवश्यकता को अपनाया। इज़रायल ने भारत को रक्षा तकनीक, कृषि नवाचार और आतंकवाद विरोधी रणनीति में सहयोग दिया। भारत को भी, एक स्थिर लोकतांत्रिक साझेदार की आवश्यकता थी।

भारत के लिए यह संबंध वैचारिक नहीं, आवश्यक है—क्योंकि वह खुद आतंकवाद और सीमाई अस्थिरता का सामना करता है। लेकिन इसके बावजूद भारत फिलिस्तीन के अधिकारों की वकालत करता है। यह कोई दोहरा रवैया नहीं, बल्कि “रणनीतिक स्वायत्तता” है।

ईरान और चाबहार पोर्ट: संतुलन की दूसरी धुरी

ईरान के साथ भारत के संबंध भी बेहद महत्वपूर्ण हैं। मई 2024 में भारत और ईरान के बीच 10 वर्षीय चाबहार समझौता हुआ, जिसमें भारत ने 120 मिलियन डॉलर का निवेश किया और 250 मिलियन डॉलर का ऋण प्रस्तावित किया। यह पोर्ट भारत को अफगानिस्तान, मध्य एशिया और रूस तक पाकिस्तान को दरकिनार कर पहुंच प्रदान करता है।

ईरान और इज़रायल के बीच बढ़ते तनाव ने भारत के लिए इन परियोजनाओं को और भी संवेदनशील बना दिया है। भारत के लिए यह सिर्फ कूटनीति नहीं, बुनियादी ढांचे और ऊर्जा आपूर्ति की हिफाज़त का सवाल है। भारत ने अक्टूबर 7 के हमास हमले की तुरंत निंदा करते हुए इसे आतंकवाद करार दिया, पर साथ ही फिलिस्तीनी स्वायत्तता के प्रति अपनी प्रतिबद्धता भी दोहराई।

राजनीति नहीं, प्राथमिकता है विदेश नीति

जहां भारत की विदेश नीति को वैश्विक दक्षिण और पश्चिम से आमतौर पर सराहना मिलती है, वहीं देश के भीतर खासकर कांग्रेस पार्टी की ओर से इसे “मौन” और “दोहरे मानदंड” कहकर निशाना बनाया गया है। चाहे बालाकोट एयरस्ट्राइक हो, अनुच्छेद 370 का हटाया जाना या इज़रायल से संबंध—कांग्रेस का रुख अक्सर तत्कालीन आलोचना और संदेह वाला रहा है।

विदेश नीति कोई रंगमंच नहीं, प्राथमिकता का संतुलन है। भारत आज इज़रायल से रक्षा सहयोग, ईरान से ऊर्जा और संपर्क, गाजा में मानवीय सहायता और समग्र क्षेत्र में शांति की वकालत—all at once कर रहा है। यह सधी हुई कूटनीति है, जिसमें भारत अब सिर्फ आवाज नहीं उठा रहा, बल्कि सक्रियता से समाधान का हिस्सा भी बन रहा है।

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