Ajit Bharti arrest. नोएडा पुलिस ने देश के यूट्यूबर और सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर अजीत भारती को हिरासत में लिया। उन्हें पहले नोएडा के सेक्टर-58 थाने और फिर डीसीपी ऑफिस, 12/22 लाया गया, जहां उनसे गहन पूछताछ की गई। यह कार्रवाई हाल ही में सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश बी.आर. गवई पर जूता फेंकने की घटना पर उनकी कथित भड़काऊ टिप्पणियों से जुड़ी है।

इस मामले के बाद, देशभर में अभिव्यक्ति की आज़ादी पर बहस छिड़ गई है। उनके समर्थकों का कहना है कि अजीत भारती एक ‘राष्ट्रीयवादी आवाज़’ हैं और उन्हें जल्द से जल्द रिहा किया जाए। वहीं, पुलिस इस पूरे मामले की संवेदनशीलता को ध्यान में रखते हुए इसकी गहन छानबीन कर रही है।

क्या था जूता फेंकने की घटना?

सोमवार को एक वकील ने सुप्रीम कोर्ट में मुख्य न्यायाधीश बी.आर. गवई पर जूता फेंकने की कोशिश की थी। इस घटना के बाद, अजीत भारती ने सोशल मीडिया और अपने यूट्यूब चैनल पर इस पर अपनी प्रतिक्रिया दी। आरोप है कि उनकी टिप्पणियाँ भड़काऊ थीं और इनसे एक विशेष समुदाय या न्यायपालिका के खिलाफ नफरत फैलने की संभावना जताई जा रही है।

पुलिस का जांच कार्य

पहले, अजीत भारती को सेक्टर-58 पुलिस स्टेशन में लाया गया, जहां उनसे प्रारंभिक पूछताछ की गई। इसके बाद, मामले की गंभीरता को देखते हुए उन्हें डीसीपी ऑफिस, 12/22 ले जाया गया, जहां उच्च अधिकारियों की निगरानी में उनसे आगे की पूछताछ जारी है।

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता या कानून का उल्लंघन?

यूट्यूबर अजीत भारती की गिरफ्तारी ने एक बार फिर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और कानून के बीच के संवेदनशील टकराव को उकेर दिया है। सोशल मीडिया पर इस मामले को लेकर तीखी बहस छिड़ी हुई है। कुछ लोग इसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर सीधा हमला मानते हुए सरकार और पुलिस की आलोचना कर रहे हैं, जबकि कानूनी विशेषज्ञों का कहना है कि यदि किसी की टिप्पणियाँ सार्वजनिक व्यवस्था या न्यायिक व्यवस्था की अवमानना को बढ़ावा देती हैं, तो उसे कानूनी प्रक्रिया के तहत जांचना जरूरी है।

समर्थक और पुलिस की राय में अंतर

अजीत भारती के समर्थक उन्हें एक सशक्त आवाज़ मानते हैं और उनके मुताबिक, उनकी गिरफ्तारी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमला है। दूसरी तरफ, पुलिस और कानूनी एजेंसियां इस बात की जांच कर रही हैं कि उनकी टिप्पणियाँ समाज में अशांति या न्यायिक संस्थाओं की अवमानना को बढ़ावा तो नहीं देतीं।

आखिरकार, इस मामले ने फिर से इस सवाल को खड़ा किया है कि क्या अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर किसी की भड़काऊ टिप्पणी को नज़रअंदाज किया जा सकता है, या फिर कानून को अपनी पूरी ताकत से काम में लाना जरूरी है।

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