1999 की शुरुआत में जम्मू-कश्मीर के कारगिल सेक्टर में मौसम आमतौर पर शांत और कठोर था। हर साल की तरह इस बार भी बर्फ की मोटी चादर पहाड़ियों पर बिछी हुई थी। लेकिन इस बार स्थिति कुछ अलग थी। पाकिस्तान की सेना ने आतंकियों के भेष में कारगिल की ऊंची चोटियों पर कब्जा करना शुरू कर दिया था। उनका मकसद था—भारत की सामरिक रणनीति को कमजोर करना और लद्दाख को भारत से काट देना।
इन घुसपैठियों के पास आधुनिक हथियार, भारी बैग और राशन सामग्री थी। वे उच्च चोटियों पर बंकर बना रहे थे और पूरी तैयारी के साथ युद्ध छेड़ने आए थे। पाकिस्तान ने सोचा था कि भारत इस साजिश को देर से समझेगा और जब तक जवाब देगा, तब तक वह सामरिक रूप से निर्णायक स्थानों पर कब्जा कर चुका होगा।
एक याक और चरवाहे से हुआ युद्ध का खुलासा
कारगिल युद्ध की चिंगारी तब भड़की जब 3 मई 1999 को लद्दाख के वंजू टॉप इलाके में एक याक भटक गया। उसे खोजने गए चरवाहे ताशी नामग्याल ने वहां कुछ अनजान और हथियारबंद लोगों को देखा। ताशी तुरंत नजदीकी सेना चौकी पर गया और अपनी आपबीती बताई। सेना ने उसकी जानकारी को गंभीरता से लिया और स्थिति का आंकलन करने के लिए एक टुकड़ी को वंजू टॉप भेजा। 5 मई को कैप्टन सौरभ कालिया के नेतृत्व में भेजी गई टुकड़ी ने दूरबीन से इन लोगों को देखा और समझा कि ये कोई सामान्य चरवाहे या नागरिक नहीं, बल्कि प्रशिक्षित घुसपैठिए हैं। लेकिन जब यह टुकड़ी लौटकर नहीं आई, तब भारतीय सेना को स्थिति की गंभीरता का अंदाजा हुआ।
पाकिस्तान का सैन्य भेष में छद्म युद्ध
जैसे-जैसे सेना ने पड़ताल शुरू की, यह स्पष्ट होता गया कि यह एक सुनियोजित सैन्य अभियान था। ये घुसपैठिए सिर्फ आतंकवादी नहीं थे, बल्कि पाकिस्तान सेना के प्रशिक्षित जवान थे, जिन्हें सीमा पार से भेजा गया था। भारत को पहली बार यह एहसास हुआ कि यह एक छोटी सी घुसपैठ नहीं, बल्कि एक पूर्ण सैन्य अभियान है। भारतीय खुफिया एजेंसियों और सेना ने यह निष्कर्ष निकाला कि पाकिस्तान ने लाहौर समझौते को तोड़ते हुए एक बड़ी सैन्य साजिश रची है, और कारगिल क्षेत्र में ऊंची चोटियों पर कब्जा कर लिया है ताकि भारत को सामरिक दृष्टि से कमजोर किया जा सके।
सेना की प्रतिक्रिया और ऑपरेशन विजय की शुरुआत
स्थिति की गंभीरता को देखते हुए भारतीय सेना ने तत्काल रणनीति बनाई। सबसे पहले दुश्मन की पोजीशन जानने के लिए भारतीय वायुसेना को अलर्ट किया गया। 26 मई 1999 को वायुसेना ने ‘ऑपरेशन सफेद सागर’ शुरू किया। इसका उद्देश्य था दुश्मन के ठिकानों पर हवाई हमले करके उन्हें कमजोर करना। इसके साथ ही भारतीय थलसेना ने ‘ऑपरेशन विजय’ की शुरुआत की, जिसका उद्देश्य था कारगिल सेक्टर की हर चोटी से घुसपैठियों को खदेड़ना और भारतीय सीमाओं को सुरक्षित करना। सेना ने तोलोलिंग, मुश्कोह घाटी, काकसर और बटालिक जैसे अहम इलाकों में मोर्चा संभाल लिया।
कठिन भौगोलिक परिस्थितियों में जंग
कारगिल युद्ध की सबसे बड़ी चुनौती थी—भूगोल। दुश्मन ऊंची चोटियों पर था, और भारत की सेना नीचे से हमला कर रही थी। ऑक्सीजन की कमी, ठंड और दुर्गम रास्तों ने ऑपरेशन को और कठिन बना दिया। फिर भी भारतीय जवानों ने दिन-रात मेहनत कर दुश्मन की हर पोस्ट पर धीरे-धीरे कब्जा करना शुरू किया। 8 माउंटेन डिवीजन और 3 इन्फैंट्री डिवीजन को ऑपरेशन की जिम्मेदारी सौंपी गई। तोलोलिंग, प्वाइंट 4590, प्वाइंट 5140, टाइगर हिल, प्वाइंट 4875 जैसे कठिन क्षेत्रों में जवानों ने चमत्कारिक साहस का परिचय दिया।
विजय की ओर बढ़ते कदम
13 जून 1999 को भारतीय सेना को पहली बड़ी सफलता मिली, जब तोलोलिंग पर कब्जा कर लिया गया। इसके बाद लगातार जीत का सिलसिला शुरू हुआ। एक-एक कर प्वाइंट 4700, ब्लैक रॉक, थ्री पिंपल, प्वाइंट 5287, टाइगर हिल और अंत में प्वाइंट 4875 जैसे अहम पोस्ट भारत के नियंत्रण में आ गए। 26 जुलाई 1999 को भारतीय सेना ने अंतिम शेष चोटी से भी दुश्मन को खदेड़ दिया और ‘ऑपरेशन विजय’ की आधिकारिक समाप्ति की घोषणा की गई। तभी से हर साल 26 जुलाई को ‘कारगिल विजय दिवस’ के रूप में मनाया जाता है।
आर्थिक कीमत और बलिदान
कारगिल युद्ध में भारत को भारी आर्थिक बोझ सहना पड़ा। अनुमान है कि इस युद्ध में 5,000 से 10,000 करोड़ रुपये तक खर्च हुए। अकेले वायुसेना की 300 से अधिक हवाई कार्रवाईयों में लगभग 2000 करोड़ रुपये का खर्च आया। भूमि पर रोजाना का खर्च 10 से 15 करोड़ रुपये तक पहुंचा। बावजूद इसके भारत की अर्थव्यवस्था स्थिर रही, क्योंकि उस समय देश के पास 33.5 बिलियन डॉलर का विदेशी मुद्रा भंडार और 10 बिलियन डॉलर का रक्षा बजट था। लेकिन आर्थिक नुकसान से कहीं बड़ा था सैनिकों का बलिदान। इस युद्ध में 527 भारतीय जवान शहीद हुए और 1363 से अधिक घायल हुए। हर चोटी पर तिरंगा फहराने के लिए जवानों ने अपनी जान की बाजी लगाई।
पाकिस्तान की सैन्य और कूटनीतिक हार
जहां भारत ने इस युद्ध में रणनीतिक और नैतिक जीत हासिल की, वहीं पाकिस्तान को भारी सैन्य और अंतरराष्ट्रीय नुकसान उठाना पड़ा। रिपोर्ट्स के अनुसार पाकिस्तान के लगभग 3000 सैनिक मारे गए, हालांकि पाकिस्तान ने सिर्फ 357 की मौत स्वीकार की। अंतरराष्ट्रीय मंच पर भी पाकिस्तान की कड़ी आलोचना हुई। कारगिल घुसपैठ को लाहौर डिक्लेरेशन के उल्लंघन और एक विश्वासघात के रूप में देखा गया। पाकिस्तान को वैश्विक दबाव और आर्थिक अस्थिरता के कारण पीछे हटना पड़ा।
युद्ध से सीखे गए सबक और सुधार
कारगिल युद्ध ने भारत को कई सबक दिए। सबसे महत्वपूर्ण था—तकनीकी संसाधनों की कमी। उस समय भारत के पास वेपन लोकेटिंग रडार, नाइट विजन डिवाइस और उच्च गुणवत्ता की बुलेट प्रूफ जैकेट्स नहीं थीं। इसके बाद सेना ने व्यापक सुधार किए। स्वदेशी ‘स्वाति’ रडार, बुलेटप्रूफ जैकेट्स और उन्नत संचार प्रणाली को सेना में शामिल किया गया। कारगिल जैसे दुर्गम इलाकों में अब सड़कें, सुरंगें और बेहतर इंफ्रास्ट्रक्चर तैयार किया गया है जिससे सेना की पहुंच और प्रतिक्रिया समय बेहतर हुआ है।