यह कहानी राम की नगरी अयोध्या की है, और एकदम सच्ची है। इसमें साजिश के ऐसे परत-दर-परत खुलासे हैं कि हर पात्र किसी हिंदी फ़िल्म के खलनायक की तरह लगता है। अयोध्या मेडिकल कॉलेज में संविदा कर्मी के रूप में कार्यरत प्रभुनाथ मिश्रा, जिनकी ड्यूटी पर्चा काउंटर पर थी, उनसे 29 जुलाई 2024 की सुबह 11 बजे MBBS की छात्राएं ऋतु और निर्मला कुमावत जबरन पर्चा बनवाने का दबाव बनाती हैं। प्रभुनाथ मना कर देता है, जिससे विवाद होता है और छात्राएं अपने साथियों के साथ मिलकर प्रभुनाथ की पिटाई करती हैं। पुलिस की मदद से वह किसी तरह बच निकलते हैं।
मामला कॉलेज के प्राचार्य डॉ. ज्ञानेंद्र कुमार तक पहुंचता है। इसके बाद 8 दिनों तक डॉ. ज्ञानेंद्र प्रभुनाथ को अपने केबिन में बुलाकर गालियाँ देते हैं, मारते-पीटते हैं, और फर्जी केस में फंसाने की धमकी देते हैं। 7 अगस्त को डॉ. ज्ञानेंद्र प्रभुनाथ से कहते हैं कि अगर सबके सामने माफ़ी नहीं मांगी, तो SC/ST केस में जेल भिजवा दूँगा। अवसादग्रस्त होकर प्रभुनाथ ज़हर खा लेते हैं और घर जाकर परिजनों को पूरी सच्चाई बताते हैं।
गंभीर हालत में परिजन उन्हें फिर से अयोध्या मेडिकल कॉलेज इलाज के लिए ले जाते हैं, लेकिन डॉ. ज्ञानेंद्र द्वारा प्रभुनाथ को “अल्कोहोलिक” लिखवाया जाता है, जबकि वे शराब नहीं पीते थे। रात 8 बजे भर्ती किए जाने के बाद उनकी हालत और बिगड़ती है। परिजन बार-बार डिस्चार्ज की मांग करते हैं, लेकिन सुबह तक का बहाना बनाया जाता है। अगले दिन परिजन उन्हें लखनऊ के लोहिया अस्पताल ले जाते हैं, जहां जांच के दौरान उनकी मृत्यु हो जाती है।
इस बीच, छात्राएं ऋतु और निर्मला 29 जुलाई की घटना का पत्र 8 अगस्त की रात 3 बजे पेश करती हैं और रातों-रात प्रभुनाथ पर मुकदमा दर्ज हो जाता है। (हाल ही में इस केस में पुलिस ने एफआर लगा दी है।) दूसरी ओर लखनऊ की विभूतिखंड पुलिस पंचनामा कर शव को पोस्टमार्टम के लिए KGMU भेजती है और बिसरा संरक्षित किया जाता है।
परिजनों द्वारा अयोध्या कोतवाली में डॉ. ज्ञानेंद्र, ऋतु और निर्मला के खिलाफ शिकायत देने पर भी पुलिस मुकदमा दर्ज नहीं करती। अंततः कोर्ट के आदेश पर 7 नवंबर 2024 को FIR दर्ज होती है। इसके बाद डीएम अयोध्या द्वारा एक मेजेस्ट्रियल जांच शुरू होती है, लेकिन जांच अधिकारी संदीप श्रीवास्तव बिना किसी को बुलाए आरोपी पक्ष को क्लीन चिट दे देते हैं। जबकि 60 सहकर्मियों ने प्रभुनाथ के पक्ष में शपथपत्र दिए थे।
प्रभुनाथ के पिता, मुख्यमंत्री को पत्र लिखकर डॉ. ज्ञानेंद्र को जांच के दौरान हटाने की मांग करते हैं, लेकिन कोई कार्रवाई नहीं होती। प्रमुख सचिव चिकित्सा शिक्षा पार्थ सारथी सेन शर्मा से मिलने पर भी उन्हें निराशा ही मिलती है।
जब बिसरा रिपोर्ट में ज़हर नहीं पाया जाता, तब परिजन को शक होता है कि रिपोर्ट से छेड़छाड़ हुई है। मेडिको लीगल जांच में डॉ. जी. ख़ान द्वारा बताया जाता है कि मृत्यु का कारण एस्फिक्सिया (घुटन) है और ज़हर से इनकार नहीं किया जा सकता। इस विरोधाभास के बाद परिजनों द्वारा DNA मिलान हेतु CDFD हैदराबाद लैब को बिसरा भेजने का निवेदन किया जाता है, जिसे पुलिस द्वारा स्वीकार कर लिया जाता है। माता-पिता के ब्लड सैंपल के साथ DNA परीक्षण की प्रक्रिया पुलिस निगरानी और वीडियोग्राफी के तहत की गई। यह मामला केवल एक व्यक्ति की मौत नहीं, बल्कि एक पूरे सिस्टम की नाकामी की कहानी है – जहां न्याय पाने की उम्मीद साजिशों में दम तोड़ती दिखती है।